जन्म | 12 फरवरी सन 1824 ई० |
बचपन का नाम | मूलशंकर |
पिता का नाम | पंडित अम्बाशंकर |
माता का नाम | अमृत बाई |
शिक्षा | वैदिक ज्ञान |
गुरु | स्वामी बिरजानन्द |
कार्य | आर्य समाज के संस्थापक, समाज सुधारक |
मृत्यु | 30 अक्टूबर 1883 ई० |
दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात की एक छोटी रियासत मोखी के एक गाँव में 12 फरवरी सन 1824 ई० को हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित अम्बाशंकर था। बचपन में दयानन्द का नाम मूलशंकर था। मूलशंकर बहुत मेधावी बालक था| 14 वर्ष की आयु में उसने सम्पूर्ण यजुर्वेद कंठस्थ कर डाला। बालक की अद्भुत प्रतिमा शक्ति से उसके गुरुजन उससे बहुत प्रसन्न रहते थे।
एक बार शिवरात्रि के त्यौहार के दिन पिता के कहने से मूलशंकर ने भी व्रत रखा और मंदिर में अन्य व्यक्तियों के साथ बैठकर भजन-कीर्तन करता रहा। रात को सबके सो जाने के बाद भी मूलशंकर जाग कर भगवान शंकर की मूर्ति के सामने ध्यान लगाये बैठकर भजन करते रहे। जब उन्होंने आँख खोली, तो देखा कि एक चूहा शिवजी की मूर्ति के ऊपर चढ़ाया प्रसाद खा रहा है। इससे उसके विश्वास को गहरा धक्का लगा और इस घटना के कारण उसके मन में एक विचित्र भावना जगी। उन्होंने सोचा कि जो मूर्ति अपनी स्वयं रक्षा नहीं कर सकती, वह दूसरों की क्या रक्षा कर सकेगी। इसी घटना से वे मूर्ति पूजा के विरोधी हो गये। इसके थोड़े दिनों के बाद ही उनकी बहन का देहान्त हो गया। इससे भी उनके मन को धक्का लगा।
कुछ दिनों के बाद ही उनके चाचा का भी स्वर्गवास हो गया। इससे उनका मन और उदास रहने लगा। उन्होंने सोचा आदमी का जीवन तो पानी के बुलबुले के समान है। इस पर तो कभी विश्वास ही नहीं किया जा सकता। यह धारणा उनके मन में स्थायी रूप से स्थान कर गई और वे बहुत खिन्न रहने लगे। एक दिन गाँव के पास के एक मेले में घरवालों को बिना बताये चले गये और केश कटाकर गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। पिता को जब यह सूचना मिली तो वहां वे गये, किन्तु वहां से सबको सोते छोड़कर दयानन्द भाग निकले और उत्तर प्रदेश में मथुरा नगर में पहुंचे और स्वामी बिरजानन्द के शिष्य हो गये। उनके गुरु बड़े क्रोधी प्रकृति के थे, किन्तु दयानन्द से खुश रहते थे।
जिस समय की यह बात है, उस समय समाज में बहुत पाखण्ड और ढोंग का प्रचालन था। लोग अपनी सुंदर-सुंदर स्त्रियां तीर्थ स्थानों के पण्डों को इसलिए दान में देते थे कि अगले जीवन में उन्हें सुंदर स्त्री मिलेगी। दान के बाद फिर मुंह मांगे दाम पर वह स्त्री अपने पति को मिलती थी। नवयुवती कन्यायें मन्दिरों को दान दी जाती थीं, जो कभी-कभी घृणित जीवन व्यतीत करने को बाध्य हो जाती थीं। इन कुप्रथाओं से स्वामी दयानन्द के मन को बहुत आघात पहुंचा। उन्होंने गुरु की आज्ञा से इसका विरोध करना शुरू कर दिया। गांव-गांव और शहर-शहर घूमकर वे प्रचलित कुप्रथाओं के विरोध में प्रचार करने लगे। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। बहुत लोग उनके अनुयायी हो गये और बहुत लोग उनके जानी दुश्मन भी हो गये। उनके भोजन में, पानी में और पान तक में जहर देने के षड्यंत्र किये गये। एक बार तो उनके रसोइये को कुछ रूपये इसलिए दिए गये कि वह भोजन में विष मिला दे। स्वामी को जब इसका पता चला तो उन्होंने सबको क्षमा कर दिया।
पंजाब के जालन्धर शहर में एक बार ‘ब्रह्मचर्य के महत्व’ पर वे व्याख्यान कर रहे थे। विक्रमसिंह नाम के एक सरदार ने दयानन्द से कहा कि “महाराज -आप ब्रह्मचर्य का इतना बखान कर रहें हैं, इसका कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाइये।”
स्वामी दयानन्द उस समय चुप रहे। जब अपनी चार घोड़े की बघ्घी में बैठकर विक्रमसिंह जाने लगे, तो दयानन्द ने बघ्घी को पीछे से पकड़ लिया। कोचवान द्वारा बारहाँ चाबुक से पिटाई किये जाने पर भी घोड़े एकदम आगे न बढ़ सके। जब सरदार ने पीछे मुडकर देखा तो दयानन्द उसे पकड़े खड़े थे। सरदार विक्रमसिंह और स्वामी दयानन्द दोनों विहँसे। स्वामी दयानन्द ने पुछा-“क्या आपको ब्रह्मचर्य के महत्व का एहसास हो गया?”
स्वामी दयानन्द के जीवन से सम्बन्धित ऐसी अनेक घटनायें हैं, जिन पर साधारण आदमी कभी-कभी सहसा विश्वास नहीं कर सकता। हमारे पूर्वज बड़ी कढ़ाई से ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उन दिनों लोग काफी शक्तिशाली होते थे। ब्रह्मचारी के पास बीमारी फाटक नहीं पाती। सुखी और संपन्न जीवन बिताने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
दयानन्द सरस्वती ठंढक के दिनों में भी हिमालय पर नंगे वदन तपस्या करते थे। उन्हें एक बार कड़ाके की सर्दी में नंगे बदन देखकर एक अंग्रेज दम्पति बहुत आश्चर्य चकित हो गये। उन्होंने स्वामी जी से इसका रहस्य पूछा। स्वामी जी ने उन्हें बतलाया की प्राणायाम और ब्रह्मचर्य के द्वारा शरीर की प्रत्येक इन्द्रिय को वश रखा जा सकता है। कहते हैं की उसी ठंड में अपने शरीर से पसीना टपका कर स्वामी जी ने उस दम्पति को और अधिक आश्चर्य में डाल दिया।
स्वामी जी ने जिन पाखंडियों का पर्दाफास किया,वे उन्हें मार डालने और बदनाम करने के लिए बहुत प्रयत्न करते रहे किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। जो व्यक्ति सच्चाई और ईमानदारी से रहेगा, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। ठीक ही कहते हैं “साँच को आँच क्या”
स्वामी जी हंसमुख और मिलनसार स्वाभाव के थे। कबीर की तरह वे भी कहते थे कि यदि गंगा नहाने, भभुत मलने और सिर मुड़ा लेने से ही स्वर्ग मिल जाता है तो मछली,गधा और भेंड़े सभी स्वर्ग के अधिकारी होते। वास्तव में स्वामी जी समाज सुधारक थे। उनका उपदेश था की अपने पूर्वजों की अच्छी, उन्हीं बातों का अनुसरण करना चाहिए, जो तर्क में भी सही उतरें।
30 अक्टूबर 1883 ई० दिवाली के दिन स्वामी जी ने अपने शरीर का त्याग कर दिया। मरते समय उन्होंने जो अंतिम वाक्य कहे थे, वह है “ए पिता! मेरी नहीं, तेरी इच्छा पूरी हो।”
स्वामी जी का प्रचार कार्य बहुत सफल रहा। उत्तर भारत में और विशेषकर पंजाब में तो उनके अनुयायियों की संख्या आज भी बहुत बड़ी है। अनमेल विवाह, बाल विवाह तथा परदा प्रथा आदि के वे विरोधी थे। आर्य समाजी विधवा विवाह समर्थन करते हैं। स्वामी जी के निर्देश में कई गुरुकुल खुले। उनके द्वारा शिक्षा का भी बहुत प्रचार हुआ। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों और विशेषक पंजाब तथा हरियाणा में स्वामी जी द्वारा स्थापित आर्य समाज द्वारा अनेक शिक्षण संस्थायें चलाई जाती हैं।