कृष्ण जन्माष्टमी, मनाये जाने का कारण
विश्व को श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान देने वाले भगवान श्री कृष्ण के जन्म के उपलक्ष्य में श्री कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार मनाया जाता है। इसे केवल जन्माष्टमी या गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है। श्री कृष्ण का ये अवतार, भगवान विष्णु के दशावतारों में आठवां और चौबीस अवतारों में से बाईसवां अवतार माना जाता है। जन्माष्टमी का त्योहार एक वार्षिक हिन्दू त्योहार है जो हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार, भाद्रपद के कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के अष्टमी (आठवें दिन) को मनाया जाता है।
यह त्योहार बिहार, महाराष्ट्र, मणिपुर, असम, राजस्थान, गुजरात, तथा भारत के अन्य सभी राज्यों में पाए जाने वाले प्रमुख वैष्णव और अन्य समुदायों के साथ विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृन्दावन में मनाया जाता है। कई समुदाय नृत्य-नाटक कार्यक्रम का आयोजन करते है जिन्हें रास-लीला या कृष्ण-लीला के नाम से जाना जाता है। ये कार्यक्रम जन्माष्टमी से कुछ दिन पहले ही शुरू हो जाते हैं। हिन्दू जन्माष्टमी के त्योहार को उपवास, स्तुति, गायन, एक साथ प्रार्थना करने, रात्रि जागरण के द्वारा श्री कृष्ण या भगवान विष्णु के मंदिरों में जाकर मनाते हैं। प्रमुख कृष्ण मंदिर ‘भागवत पुराण’ और ‘भगवद गीता’ के पाठ का आयोजन करते हैं। मध्यरात्रि के जन्म के बाद, शिशु कृष्ण की मूर्तियों को धोया और वस्त्र पहनाया जाता है और फिर पालने में रखा जाता है। इसके बाद भक्त भोजन और मिठाई बांटकर अपना उपवास तोड़ते हैं। महिलाएं अपने घर के दरवाजे और रसोई के बाहर छोटे-छोटे पैरों के निशान बनाती हैं जो अपने घर की ओर चलते हुए, अपने घरों में कृष्ण के आने का प्रतीक माना जाता है।
कुछ जगहों पर कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन ‘दही हांडी’ (दही के मिट्टी का बर्तन) को तोड़ने का उत्सव भी मनाया जाता है जो इस त्योहार का एक हिस्सा है। इसमें दही के बर्तनों को ऊंचाई पर या किसी इमारत के दूसरे अथवा तीसरे स्तर से लटकी हुयी रस्सियों से लटका दिया जाता है। युवाओं की टीमें जिन्हें ”गोविंदा” कहा जाता है, लटकते हुए बर्तन के चारों ओर नृत्य तथा गायन करते हुए जाते हैं और एक दूसरे के ऊपर चढ़कर दही हांडी तक पहुँचते हैं, फिर उसे तोड़ते हैं। गिराई गयी सामग्री को प्रसाद (उत्सव प्रसाद) के रूप में माना जाता है। यह एक सार्वजनिक उत्सव होता है जिसको सभी लोग बहुत उत्साह, आनंद और भक्ति-भाव के साथ मनाते हैं।
भगवान श्री कृष्ण
ये भगवान विष्णु के दशावतारों में से 8वें अवतार थे जो अवतार पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर का अवतार कहा जाता है। भगवान श्री कृष्ण वासुदेव और देवकी के 8वें संतान थे। देवकी मथुरा के राजा कंस की बहन थीं। कंस एक अहंकारी और अत्याचारी राजा था। जब कंस अपनी बहन देवकी का विवाह वासुदेव के साथ सपन्न कराके विदाई दे रहा था तभी उसे आकाशवाणी द्वारा यह पता चलता है कि देवकी के आठवें पुत्र द्वारा उसका वध होगा। यह सुनकर कंस देवकी को मारना चाहता है पर वासुदेव द्वारा यह विश्वास दिलाने पर कि वह प्रत्येक पुत्र को उन्हें सौप देंगे, कंस देवकी को मारता नहीं है परन्तु दोनों को कारागार में डाल देता है। देवकी द्वारा हुए 6 सन्तानों को कंस एक-एक करके मार देता है। देवकी के सातवें गर्भ को दैवीय शक्तियों द्वारा संकर्षण के माध्यम से रोहिणी जो की वासुदेव की पहली पत्नी थी उनके गर्भ में स्थापित कर दिया जाता है। इस प्रकार रोहिणी के गर्भ से बलराम का जन्म होता है। बलराम को शेषनाग का अवतार कहा जाता है चूँकि इनका जन्म संकर्षण द्वारा हुआ था अतः इन्हें भगवान संकर्षण भी कहा जाता है। इसके पश्चात् भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भगवान श्री कृष्ण का जन्म, देवकी और वासुदेव के आठवें पुत्र के रूप में मथुरा के कारागार में हुआ। कंस के डर से पिता वासुदेव ने नवजात शिशु को रात में ही यमुना पार गोकुल में यशोदा और नन्द के यहाँ पहुँचा दिया। और वहां यशोदा के यहाँ जन्मी बालिका से बदलकर उस बालिका को मथुरा ले आये। कंस ने जब बालिका को मरना चाहा तो वह अष्टभुजा रूप धारण कर यह कहकर अंतर्ध्यान हो गयीं कि उसे मारने वाला तो कोई और है जो जन्म ले चुका है। उधर श्री कृष्ण का लालन-पालन माता यशोदा और नन्द जी ने किया इस प्रकार यशोदा और नन्द बाबा इनके पालक माता-पिता हुए।
बाल्यावस्था में ही इन्होनें ऐसे बड़े-बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए असम्भव था। बाल्यावस्था में ही इन्होनें कंस द्वारा भेजी गयी राक्षसी पूतना का वध किया। इसके पश्चात् बकासुर, शकटासुर, तृणावर्त आदि कई राक्षसों का वध किया। एक बार श्री कृष्ण के कहने पर गोकुलवासियों द्वारा इष्ट देव के रूप में देवराज इंद्र को छोड़कर गोकुल को हरा-भरा रखने वाले गोवर्धन पर्वत की पूजा की गयी जिससे प्रसन्न होकर गोवर्धन जी साक्षात् प्रकट हुए और समस्त गोकुलवासियों को आशीर्वाद दिया। इस दिन आज भी हम सब ‘गोवर्धन पूजा’ के रूप में मानते हैं। अपनी पूजा न होने पर इंद्र देवता नाराज हो गये और बारिश की भरपूर्ण मात्रा द्वारा सम्पूर्ण गोकुल में बाढ़ का मौहोल बना दिए। तब भगवान श्री कृष्ण ने सम्पूर्ण गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठिका पर धारण कर सभी उसके नीचे आश्रय देकर गोकुलवासियों की रक्षा की। गोवर्धन पर्वत को कनिष्ठिका पर धारण करने के कारण ये ‘गोवर्धन गिरिधारी’ भी कहलाये। एक बार यमुना जी में कालिया नाग के आ जाने के कारण सम्पूर्ण जल में विष फ़ैल रहा था जिससे नदी के पानी को पीने वाले गाय और पशु बीमार पड़ रहे थे। जब यह खबर कृष्ण को लगी तो इन्होनें पानी के अंदर जाकर कालिया नाग को हराकर उसके फनों पर नृत्य किया और उसे वहां से दूर भेज देते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने बचपन में कई लीलाएं भी की जिसमें माखन-चोर की लीला, गोचारण लीला, गोवर्धन लीला, रास लीला आदि प्रमुख हैं।
भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा में जाकर कंस का वध किया और अपने माता-पिता को मुक्त कराया। ये ऋषि संदीपनी के आश्रम में बड़े भाई बलराम समेत शिक्षा ग्रहण की। जहाँ इसकी मित्रता सुदामा से हुयी जो एक गरीब ब्राह्मण के परिवार से सम्बन्ध रखता था। शिक्षा ग्रहण के पश्चात् दोनों अपने अपने कर्तव्यों में लग गए। मथुरा पर जरासंधि ने कई बार आक्रमण किया परन्तु हर बार श्री कृष्ण उसे हराकर जिन्दा छोड़ दिया बाद में श्री कृष्ण ने सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थपाना की और अपना राज्य बसाया। श्री कृष्ण के मुख्य आठ पत्नियों का वर्णन मिलता है जो रुक्मिणी, सत्यभामा, जामवंती, कालिंदी, मित्रवृंदा, नाग्नाजिती, भद्रा और लक्ष्मणा हैं। भगवान विष्णु के श्री कृष्ण अवतार को प्रेम अवतार भी कहा जाता है। श्री कृष्ण को राधा जी के साथ सबसे अधिक चित्रित किया गया है अतः स्तुति में हम इन्हें ‘राधेश्याम’ भी कहते है। राधा जी को हिन्दू परंपराओं में विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी के अवतार के रूप में माना जाता है।
महाभारत के युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और जब अर्जुन मोह-माया के कारण युद्ध करने से मना कर देते हैं तब श्री कृष्ण उन्हें उपदेश देते हैं, दिए गए उपदेशों का संग्रह ‘श्रीमद्भागवाद गीता’ है। उपदेश देने के पश्चात् वे अपने विराट स्वरूप (पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर का रूप) अर्जुन को दिखते हैं जिसका न आदि है और न अंत, सैकड़ों श्रृष्टि जिससे उत्पन्न होती है और उसी में समाहित हो जाति है, तथा समझाते हैं की श्रृष्टि के पालन-कर्ता भी वही हैं और संहार करने वाले महाकाल भी वही हैं । इस प्रकार अर्जुन सब कर्ता-धरता वहीं को समझकर स्वयं को बस एक माध्यम मानकर युद्ध के लिए तैयार हो जाते हैं। भगवान श्री कृष्ण पांडवों की मदद करते हैं और विभन्न संकटों से उनकी रक्षा भी करते हैं। कहा जाता है महाभारत के युद्ध के कारण बहुत जन-धनि की हानि होती है और सभी कौरव युद्ध क्षेत्र में मरे जाते हैं जिसका कारण गांधारी, श्री कृष्ण को मानकर उनके वंश के विनाश का श्राप दे देती हैं । जिससे इनका वंश भी टूट कर विखर जाता है। भगवान श्री कृष्ण जब अपनी लीला समाप्त कर वैकुण्ठ पधारे उसके बाद के समय से ही कलियुग का आरम्भ हुआ।